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Showing posts from March, 2009

कवि की बातें कवि ही जाने

जीवन की किसी परिचर्चा में एक दिन किसी ने पूँछ लिया बड़ा मौलिक प्रश्न आखिर आप कविता लिखते कैसे है श्रीमान मैंने सोंचा प्रश्न वाकई मौलिक है और इतना भी नही है आसान तो क्या करूं, उत्तर कहा खोजूं, या फ़िर चुप ही रहूँ हंस के टाल दूँ या फ़िर जीवनदर्शन की गहराइयों में घुमा के हवा में उछाल दूँ अभी मै उत्तरों के विन्यास में छटपटा ही रहा था कि तभी मेरे अन्दर के इंजिनियर ने मौके का फायदा उठाया इससे पहले मै कुछ सोंच पाता, उसने बेधड़क अपना उत्तर सुझाया  कविता लिखने में क्या है, शब्दों के भण्डार का खेल है भाषा की पकड़ और तुकबंदी का सीधा सा मेल है हैं जी।  मै तो कहता हूँ कविता कोई भी लिख ले जो पढ़ा लिखा हो कठिन कठिन शब्द इकठ्ठे कर लो ना जुगाड़ हो तो शब्दकोष पकड़ लो चार पॉँच कवितायें पढ़ो थोड़ा इधर उधर से उठा लो, थोड़ा अपनी गढ़ो मै चुपचाप सुनता रहा  लेकिन मेरा मन कुछ और ही धुनता रहा अब मेरे अन्दर के कलाकार की बारी थी मेरी उधेड़ बुन अभी भी जारी थी एक नया पक्ष उभरा कविता भावनाओं का शब्दीकरण है भाषा का कोई बंधन नही क्योंकि   भावनाओ का अपना अलग व्याकरण है मन के चित्र शब्दों में उतरते जाते हैं हम भावनाओं में बहते

नन्हा आगंतुक

जन्म दे रहे इक सपने को आशाओं के ताने बाने हो गई पूरी एक प्रतीक्षा, खड़ी दूसरी सांसे थामे जीवन की कोई बिन्दु कोख में, कुम्भकार की कच्ची  माटी समय चक्र के पहिये पर ये, नए रूप में ढलती जाती सपनों से सपनों का जुड़ना, आशाओं से आशाओं का जन्म हुआ माँ की ममता का, और पिता के भावों का नामों पे अब बहस छिड़ेगी, अटकल में बीतेंगी रातें बदल जायेगी जीवन चर्या, करने को अब कितनी बातें होगी कोई देव लोक से परी कथाओं की कोई बाला या फ़िर सबको नाच नाचता नटखट नटवर नन्द का लाला छिपी बात फ़िर निकल पड़ेगी बाँध पोटली अटकल वाली दबें पाँव से खुसफुस कर के ख़बर बन चली और निराली काल चक्र को पंख लग गए, हुई उड़न छू समय पिटारी हलके फुलके सपने बन गए भारी भरकम जिम्मेदारी नन्हे मुन्हे आगंतुक का, चलो करे सब मिल कर स्वागत जीवन धारा चलती जाए, एक जन्म से फ़िर अगले तक - राकेश 

कितना मधुरिम चंचल प्रभात - एक संस्कृतनिष्ट कविता का प्रयास

कितना मधुरिम चंचल प्रभात मंद मंद घूंघट उतार केशों का नैसर्गिक श्रृंगार  उषा विहंसी कर नयन खोल हो गए रक्तवर्णी कपोल बाला का कोमल सरस गात कितना मधुरिम चंचल प्रभात।  दे रहा दूत सबको संदेश हो रहा दिवाकर का प्रवेश अरि करते गुंजित ह्रदय तार करने को स्वागत है तैयार हो क्षीण भगी फ़िर कुटिल रात कितना मधुरिम चंचल प्रभात।   कर रहे नृत्य सारे प्रसून छाई मधुपों की लय गुनगुन पक्षीगण गाते मधुर गान करवाते सबको सुधा पान ये मलय पवन का मृदुल हाथ कितना मधुरिम चंचल प्रभात।   किरणों ने कोमल पत्रों के आलिंगन कर आंसू पोंछे भर दिए पुष्प में नवल रंग पुलकित धरणी का अंग अंग सब वृक्ष झूमते साथ साथ कितना मधुरिम चंचल प्रभात।   कलुषित रजनी तम से भर तन बोझिल करुणा से उसका मन बस फूट पड़ी कलकल छलछल यौवन और ऊपर से उच्श्रंखल बह चली निर्झरी सद्यस्नात कितना मधुरिम चंचल प्रभात। - राकेश 

अनंत प्रतीक्षा

शाम हो चली धुंधली धुंधली, छूट गया आशा का अंचल ओंस रात की बन कर आंसू, पलकों से अब चली निकल सरक रहा है रेत रेत सा, समय हाथ से हर क्षण हर पल धुंआ धुंआ हो धीरे धीरे, घुल गए सब सपनों के बादल रात हो गई कितनी लम्बी, शांत पड़े सब तारा मंडल अंधियारे में भटक भटक के, सिमट गई जीवन की हलचल हुए अजनबी आसपास सब, अंतर मन हो रहा विकल जीवन बन गया एक प्रतीक्षा, और मै अर्थशून्य सा छल.