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Showing posts from March, 2018

दौलत की गठरी

दोस्ती एक बड़ा संवेदनशील और जीवंत रिश्ता है. ये जितना कम परिभाषित और औपचारिक व्यवस्था से परे है, उतना ही गहरा और भावना-प्रधान रिश्ता है. इस रिश्ते का एक बड़ा ही रोचक कथानक है साधारण वर्ग के दोस्तों के गुट में किसी एक दोस्त का अचानक बड़ा अमीर बन जाना और फिर वो अमीरी अपने साथ बहुत सारे बदलाव लेके आती है. इसी कथानक पर चार पंक्तियाँ प्रस्तुत हैं: बड़ी भारी है तुम्हारी दौलत की गठरी, जरा  संभाल के  उठाना  कुछ फक्कड़ दोस्ती के पन्ने,  और कुछ आज़ाद लम्हे होंगे नीचे | तुम्हे तो  अब  शायद इनकी ज़रूरत न हो मगर फिर भी, छू लेना इन्हें जो अकेले हो जाओ कभी  अपनी  नई दुनिया मे | ---------------------------- गठरी = bag फक्कड़ = carefree - राकेश 

इंसानियत का बोझ

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Source: "Troubles with the Nigerian Child Painting" by Uchechukwu Nweke वैसे मै dark poetry (काली कवितायेँ), खासकर सामयिक विषयों पर कम ही लिखता हूँ. आज अनायास ही शब्दों का बहाव न जाने क्यों इस शैली की तरफ चला गया. कुछ पंक्तियाँ प्रस्तुत हैं सामाजिक विकृति और मानवीय अधोपतन के बढ़ते बवंडर के ऊपर.  ज़रूरत पड़ी  तो,  जज़्बातों को खेलने का सामान बना लिया मौका मिला  तो,  लम्हों को हैवानियत का शमशान बना लिया  ख़ुद की नज़रों में गिर गए और फिर गिरते ही रहे उम्र भर, आंखे मूँद लीं, तमाशों के बीच बेबसी में जीना आसान बना लिया  आइने तोड़  दिए ,  शब्दों के जाल को अपनी पहचान बना लिया  रिश्ते स्वांग बनते गए तो, ख़ुद को रंगीन मुखौटों की दुकान बना लिया  मंज़िले ढूंढने का शौक़  अब  किसी को नही मेरी दुनिया मे,  रास्ते ज़िन्दगी का सच बन गए तो डेरों को और भी आलीशान बना लिया | दुनिया ने कहा सब बिकाऊ है तो ख़ुद बिक गए और पैसे को अपना ईमान बना लिया माँ की कोख़ में तो मासूम ही थे थोड़े समझदार क्या हुए पाप को मेहमान बना लिया  सिकुड़ती सोंच के नासूर पर आख़िर  कितना और  मरहम  लगाते,

संवाद, तर्क और दोस्ती

कुछ दिनों पहले मैंने फेसबुक पर आध्यात्म एवं विज्ञान के बीच की दूरी के मसले पर एक लेख डाला. कुछ ने सराहा तो कुछ ने वैचारिक असहमति भी जताई. असहमति अपनी जगह दुरुस्त है, आखिर तो हम सब ही बूँद भर ज्ञान से सागर की गहराई नाप रहे हैं, तो काहे का हल्ला गुल्ला. मगर फिर भी मेरा प्रयास रहता है कि संवाद और तर्क की प्रक्रिया में मेरे अनुभव और अंतःप्रज्ञा से कुछ नए दरवाजे खोलूं. तो जाहिर है की दोनों पक्षों का सम्पूर्ण दृष्टिकोण आने में संवाद अक्सर थोड़ा लम्बा खिंच जाता है. मेरे एक शुभचिंतक मित्र ने निजी तौर पर सलाह दी कि भाई अगर हर कोई तुम्हारी बात समझ जाता तो दुनिया का कल्याण बहुत पहले हो जाता इसलिए ज्यादा तर्क वितर्क करके कोई फायदा नहीं है. हो सकता बात सही भी हो. किन्तु मेरा नज़रिया थोड़ा अलग है और उस नज़रिये के लिए ही ये दो पंक्तियाँ: बदलाव की आंधी है, हवाओं में रफ़्तार है,  पत्ते भी कई टूटेंगे और उड़ेगी धूल भी |   आँखे मूँद के मासूम तो बन जाएँ मगर,  आइना देखके हर बार खुद से होगी मायूसी बड़ी |