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Showing posts from May, 2009

मै मानसी, एक अनंत असाधारण कल्पना

अरविन्द पाण्डेय जी की परा वाणी पर कविता पढ़ी । बड़ी अच्छी शैली है । नारी पर उनकी कविता " मै नारी हूँ, नर को मैंने ही जन्म दिया " ने मुझे प्रेरित किया की मैं इस विषय पर अपनी ४ पंक्तियाँ जोड़ दूँ । प्रस्तुत है वो ४ पंक्तियाँ ..., अरविन्द जी को आभार सहित धन्यवाद ... मै मानसी मै हूँ एक अनंत असाधारण कल्पना सृजन और प्रलय से परे उस शक्ति की रचना जिसकी अभिलाषा को  मैंने ही आकार दिया उसकी  सर्वश्रेष्ठ  रचना   को अपना गर्भ देना स्वीकार किया और  किया  स्वीकार   अपनी शक्ति को   प्रसुप्त, अव्यक्त और निस्तब्ध रखना  और  पुरुष के अंहकार विष को   अपने ममता के कंठ में उतारते रहना ताकि उस सृष्टा की अभिलाषा  कलुषित न हो, दूषित न हो युग युगांतर तक उसकी कल्पना  फले फूले, खंडित न हो और स्वीकार किया कामनी का रूप धर माया के प्रबल चक्रवात को समेटे रखना जब  भी  पुरुष की  विवशता   आंसू बन छलके तो उसके स्वाभिमान को पुनर्जीवित करना पर सत्य की ये क्या विवशता  कैसी है  ये  विडम्बना जिसके लिए सब कुछ समर्पित,  आज मेरे अस्तित्व

ये मां है ....

पहली हलचल से पहली धड़कन तक पहली साँस से पहले कदम तक पहले शब्द से पहली शिकायत तक पहली हंसी से पहले आंसू तक। किसी का परिश्रम है, अनवरत, असाधारण और निष्काम। अनवरत इसलिए कि, नन्हा सा असक्षम जीवन निर्भर है किसी पर, जीवन की हर प्रक्रिया समझने के लिए और दुनिया से सतत अपने तार जुड़े रखने के लिए असाधारण इसलिए कि, वो इंसान है। अपने से पहले किसी और की जरूरते पूरा करना तन मन की सारी शक्ति एक लक्ष्य में झोंक देना कष्ट को सौभाग्य समझना और उसे कर्त्तव्य की भांति निभाना ये साधारण हो सकता है? निष्काम इसलिए कि, त्याग है उसके कर्म का आधार। भावना और प्रेम के आगे, उसके अपने होने या न होने से भी परे उसकी हर सोंच में तपस्या है, उसके लिए हर दिन एक अग्नि परीक्षा है अग्नि परिक्षा, उसके संयम की, दृढ़ता की और आत्मविश्वास की इस स्वयं की बनायीं अग्निपरीक्षा में उसके आत्मसम्मान की झलक है अपनी पहचान बनाये रखने वाले अटूट अभिमान की ललक है। हर नए जीवन को दुनिया में लाने के साथ ही ये शुरू करती है एक नया संघर्ष, एक नयी लड़ाई और इस संघर्ष के हर क्षण में, वही ऊर्जा, वही परिश्रम, वही समर्पण। ये परिभाषित करती है जिजीविषा क

सिगरेट के कुछ आवारा पन्ने...

मै तो पीता नही हूँ पहले ही बता दूँ लेकिन उड़न तश्तरी के समीर लाल जी के लिए (जो कभी सिगरेट के कागज पे अभिव्यक्तियाँ लिखा करते थे) ४ पंक्तियाँ समर्पित की थी, वो यहाँ दुबारा प्रस्तुत कर रहा हूँ।  सिगरेट के कुछ आवारा पन्ने अपनी पहचान से पूरी तरह अनजान फ़िर पड़ी किसे है, जिसकी गरज हो वो जाने ख़ुद तो धुंए के खेल में लिपटे हैं पर किसे मालूम कि बड़ी गहरियों में उतरेंगे एक दिन सिगरेट के वही कुछ गिने चुने पन्ने थोड़े लापरवाह, काफी कुछ बेलगाम गुजरे वक्त को सहजे हुए बिना किसी खुदगर्जी के वो तो वक्त के साथ ही थम गए थे ये तो हम तुम हैं जिन्हें वक्त से आगे जाने की पड़ी है और जब कभी आराम के पलों में याद आ जाए पीछे छूटी अनगिनत अनमोल घड़ियों की तो फ़िर ढूँढने पड़ते हैं वही सिगरेट के बेकदर इधर उधर ठोकर खाते पन्ने किस्मत अच्छी कि कुछ अभी भी सलामत हैं नही तो वक्त ने अच्छे अच्छों को धूल चटाया है कुछ के निशान बाकी हैं तो कईओं को पूरा मिटाया है चलो, दिन अच्छा है कि फ़िर याद कर रहे हैं हम और आप अनजाने में ज़िन्दगी का हिस्सा बन गए वो सिगरेट के कुछ पन्ने - राकेश  समीर जी का मौलिक ब्लॉग यहाँ है: http://udantashtari.blog

लक्ष्य और दुविधा...

मन माला सब बिखर रही है गीत कौन सा मै गाऊँ बढ़ा कारवां लक्ष्य साध , मन दुविधा में , क्या रुक जाऊं ? सिमट सिमट के रह जाएगा , काल चक्र की परतों में बस बुना बटोरा तिनका तिनका रिश्तों का हर ताना बाना धर्म कर्म कर्तव्य में उलझी अभिलाषा की जंजीरों से मुक्त हो रहा जीवन पंक्षी , ढूंढेगा फ़िर कोई नया ठिकाना ह्रदय और मन उलझे दोनों , किसे सुनूँ और किसे भुलाऊँ मन माला सब बिखर रही है गीत कौन सा मै गाऊँ पथिक और पथ, संग परस्पर,  मिलकर पग पग बनते पूरक और थमे जब चरण कहीं पर, करने को विश्राम घड़ी  भर पलक झपकते बरसों बीते, बस गई दुनिया रंग बिरंगी भूल चला क्या पथिक लक्ष्य भी, इस दुनिया के रंग में रंग कर हर रचना का एक रचयिता , क्या सच समझूं क्या ठुकराऊँ मन माला सब बिखर रही है गीत कौन सा मै गाऊँ  संगी साथी दुनिया वाले , डाल बसेरा ठहर गए जो   कब के भटके  पथिक सभी हैं , लक्ष्य और पथ दोनों भूले पथ अनंत है , मार्ग कठिन है , जगह जगह पर सुंदर डेरे पग स्थिर हों उससे पहले , लक्ष्य स्वयं का स्थिर कर

एक शिकायत ज़िन्दगी से...

ए ज़िन्दगी कहाँ ले जा रही है तू मुझको न तो रास्ते की पहचान और न ही मंजिल की कुछ ख़बर बस कदम दर कदम सुबह से शाम तक दौड़ा रही है मुझको मेरी हमदर्द है तू या फ़िर कोई अजनबी समझना हो रहा है मुश्किल क्यूँ इतना धुंधला आइना दिखा रही है मुझको कामयाबी की उम्मीद तो करने दे वक्त की रफ़्तार से थोड़ा आगे तो बढ़ने दे क्यूँ अभी से नाकामयाबी की मायूसी में उलझा रही है मुझको एक दिन तो चले जाना ही है तू भी जानती है और मैं भी जी लेने दे जब तक साँस बाकी है सीने में क्यूँ जी लेने के अरमानो पे अभी से कफ़न उढ़ा रही है मुझको तू भी खुश रह और रहने दे खुश मुझे भी अँधेरा है बहुत, दूर तक और गहरा भी कहीं दूर से एक रोशनी की किरण अपने पास बुला रही है मुझको ए ज़िन्दगी ये कहाँ लेके जा रही है मुझको। - राकेश