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Showing posts from February, 2009

वो सुबह कभी तो आएगी...

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बनते फूटते बुलबुलों में भी ढूंढ लेता है इन्द्रधनुष के हजारों रंग पल दो पल भर के लिए ही सही, आज कल भर के लिए ही सही मन के खिलौनों और सपनों के खेल में उलझा ये मजबूर आदमी बरसों चलने के बाद भी रहता है वहीं का वहीं मील के पत्थर की तरह किसी एक जगह रुका सा कभी न मिल पाने वाली मंजिलों के गीत गाता है, दर्द से रिश्ते बनाता है आशाओं से सपने बुनता है, मुट्ठी भर हमदर्दी से पिघल के पानी हो जाता है धरती और स्वर्ग के बीच संघर्ष में जीवन के अर्थ को तलाशता कभी अतीत के पश्चाताप तो कभी कल की चिंता में अपने आज को नकारता समय से तेज दौड़ने और जरूरत से अधिक पा लेने की जल्दी में मन की ग्लानि को मंदिरों की घंटी और पूजा के फूलों में छिपाता है आज अपनी ही परछाईं से घबराता है और अपने आप से आंखे मिलाने में शरमाता है देवों की धरती पे जन्म लेके भी मानवता के लिए तरसता है सब कुछ खो जाने पर भी बस इसी आशा में जिया जाता है जिसकी खोज है आदमी को वो उजली अनमोल सुनहरी आज न सही, कल न सही पर एक दिन तो कभी न कभी अंधेरे को विदा करती, वो सुबह कभी तो आएगी वो सुबह कभी तो आएगी। - राकेश

आज मेरा मन भर आया...

आज मेरा मन भर आया जब याद किए ये गुजरे दिन  आँखे भी नम हो आयीं, आँसू न रुकेंगे छलके बिन  सच, कितना प्यार समेटे है शिक्षा की ये भूमि महान समझ सका न कभी आज तक गता रहा दुखों का गान घर से तो आए दूर मगर, आज़ादी का अधिकार मिला जहाँ सब राजा अपने मन के, ऐसा मोहक संसार मिला बगिया बदली माली बदले, नए रंग के फूल खिले अपनी अपनी खुशबू लेके हम नई दिशाओं में निकले आंख खुली तो क्या पाया, उन्मुक्त नील आकाश अनंत पर थे कोमल और मन था कच्चा पर छूने थे सब दिग-दिगंत कई बार गिरे चोटें खायीं, आशा का एक सहारा था खुल गए पंख तो क्या कहना, सारा ही गगन हमारा था बुन गई कहानी अज़ब-गज़ब, उन शामों की झिलमिल कतरन कितने ही किस्से बीत चले, थोड़ी मस्ती थोड़ी अनबन नन्हे नन्हे फूलों जैसी, छोटी छोटी कितनी बातें हर रोज़ नए नए सपने, दिन बीत गए हंसते गाते खुशियों के इन्द्रधनुष जैसी, कुछ घड़ियाँ ऐसी भी महकीं अब तक साँसों में तैर रही, खुशबू उन प्यारे लम्हों की बेचैन हृदय के कोने में कोई बात पुरानी बाकी है चुपचाप अकेले बैठी है, बहार आते घबराती है वो याद बहुत ही कोमल है, रखता हूँ परदे में हर दम शायद अब भी ना छू पाऊँ, दिल के तारों की वो सर

होली और हंगामा

रंगों की धुंधली परछाईं मन के आंगन में घूम गई  कुछ गुजरी नटखट सी बातें मन की दहलीज़ें चूम गयीं  कुछ दिन ही अब बाकी हैं हुल्लड़ और हल्ले गुल्ले में फ़िर वही पुरानी टोली और फ़िर से हुडदंग मुहल्ले में  फिर नई शरारत सूझेगी, उत्साह भरे हर पल होंगे     अपने रंगों की बौछारों पर जाने कितने आंचल होंगे  रंगों का बहाना भी होगा, कुछ छेड़ छाड़ कुछ धूम धाम  काम धाम सब बंद पड़ा, कुछ दिन अब मस्ती सुबह शाम  दर्द गए सब भूल सभी तकलीफें हुईं रफू चक्कर  मिलना जुलना सब लोगों से, घर से बाहर रहना दिन भर  होली के दिन कुछ हटके हैं, फ़िर ऐसा कब मौसम होगा  कितना भी मचाओ हंगामा, सच कहता हूँ कम होगा  बस बैठा सोंच रहा हूँ मैं, कल की यादें कल के सपने  रंगों की धुंधली परछाईं, है दिखा गई फ़िर रंग अपने  रंगों की धुंधली परछाईं, है दिखा गई फ़िर रंग अपने | - राकेश 

यौवन वही सराहा जाता ...

यौवन वही सराहा जाता जो मदिरा के रंग ढले नयनो में हो मधुशाला, वांणी का मधु दिन रात छले अन्तर की अग्नि धधकती हो, हर अंग पुष्प की माला हो ज्यों मधु प्याले में ज्वाला हो, ज्वाला जो मधु का प्याला हो कोमल मदमाते अधरों पे सुख सात स्वर्ग अपवर्ग मिले यौवन वही सराहा जाता ... मैं भ्रमर महकती कलियों का कलियों तक जाती गलियों का गलियों में बिखरे यौवन का यौवन में डूबे तन मन का जिसे छूने भर से हलके हलके कोई मलय पवन सी बह निकले यौवन वही सराहा जाता ... बाँहों में मधुकर की सरिता आलिंगन से सब कुछ विस्मृत फ़िर क्या क्षण पल की सीमाएं मिल गया जिसे प्रेम अमृत जिसे यौवन की चिंगारी से हर युवा ह्रदय में दीप जले यौवन वही सराहा जाता ... जिसकी कोमलता निर्मल हो और मर्यादा का अंचल हो जिसकी मदिरा में विष न हो पावन अंतर मन चंचल हो जहाँ प्रेम पले जीवन रस से, वो छाँव हो प्यारी छाँव तले यौवन वही सराहा होता जो मदिरा के रंग ढले यौवन वही सराहा जाता जो मदिरा के रंग ढले - राकेश   नोट: ये कविता मैंने आई आई टी के दिनों में एक कविता प्रतियोगिता में दी थी और प्रथम पुरुष्कार भी जीता। :-)

रात और मदिरा

अग्नि पिघल के जल हुई प्रेम सुधा की बूंदे मिली, मदिरा बनी छलक पड़ी भर गई दो चमकती आँखों में आंखे चार हुई धूप छाँव में समा गई चाँद ने अंगडाई ली, पलकें झुक गयीं प्यास और मदिरा एक होने लगे प्रकृति ने नयन मूँद लिए  शांत, स्तब्ध चाँद नीरवता की हलचल निहारता रहा  और ज्वालामुखी से चाँदनी फूटती गई  पल थमे, रात ठंडी होके बिखरती गई  स्वांसों में ज्वार उठे  मन में समुद्र मंथन हुआ पत्तों पे ओंस की कुछ बूंदे फिसलीं तृप्ति ने प्याला तोड़ा पलकें फ़िर झुकीं, झुकी ही रहीं सूरज की पहली किरण ने वीणा के तार छेड़े संकुचाई रात मदिरा को मौन के अंचल में छिपा कर ले गई दूर, बहुत दूर| - राकेश 

मै उंगली थामे चलता हूँ...

बचपन तो कब का बीत गया, पर स्वप्नों से मन छलता हूँ कहीं दूर क्षितिज पर यादों की मै उंगली थामे चलता हूँ | मेरे मन में भी फूटे हैं कुछ भावों के नटखट अंकुर, शब्दों की अर्ध सुप्त कलिका खिल जाने को अब है आतुर | नवपत्रों पे झिलमिल झिलमिल बूंदे बन कर मै ढलता हूँ, मै उंगली थामे चलता हूँ ... जब लम्बी रातों सा जीवन सूना अँधियारा हो जाए खुशियों की नन्ही परी कहीं छिप कर पलकों में सो जाए | तब मन के आंगन के दीपक की बन दीपशिखा मै जलता हूँ मै उंगली थामे चलता हूँ .... हो जाता है खाली जब मधु जीवन रस का हर प्याला बंजर हो जाती स्वप्नधरा, बुझ जाती यौवन की ज्वाला| तब स्निग्ध प्रेम की गरमी से हिमकण की भांति पिघलता हूँ कहीं दूर क्षितिज पर यादों की मै उंगली थामे चलता हूँ कही दूर क्षितिज पर यादों की मै उंगली थामे चलता हूँ | - राकेश