वो सुबह कभी तो आएगी...
बनते फूटते बुलबुलों में भी ढूंढ लेता है इन्द्रधनुष के हजारों रंग पल दो पल भर के लिए ही सही, आज कल भर के लिए ही सही मन के खिलौनों और सपनों के खेल में उलझा ये मजबूर आदमी बरसों चलने के बाद भी रहता है वहीं का वहीं मील के पत्थर की तरह किसी एक जगह रुका सा कभी न मिल पाने वाली मंजिलों के गीत गाता है, दर्द से रिश्ते बनाता है आशाओं से सपने बुनता है, मुट्ठी भर हमदर्दी से पिघल के पानी हो जाता है धरती और स्वर्ग के बीच संघर्ष में जीवन के अर्थ को तलाशता कभी अतीत के पश्चाताप तो कभी कल की चिंता में अपने आज को नकारता समय से तेज दौड़ने और जरूरत से अधिक पा लेने की जल्दी में मन की ग्लानि को मंदिरों की घंटी और पूजा के फूलों में छिपाता है आज अपनी ही परछाईं से घबराता है और अपने आप से आंखे मिलाने में शरमाता है देवों की धरती पे जन्म लेके भी मानवता के लिए तरसता है सब कुछ खो जाने पर भी बस इसी आशा में जिया जाता है जिसकी खोज है आदमी को वो उजली अनमोल सुनहरी आज न सही, कल न सही पर एक दिन तो कभी न कभी अंधेरे को विदा करती, वो सुबह कभी तो आएगी वो सुबह कभी तो आएगी। - राकेश