कितना मधुरिम चंचल प्रभात - एक संस्कृतनिष्ट कविता का प्रयास
कितना मधुरिम चंचल प्रभात
मंद मंद घूंघट उतार
केशों का नैसर्गिक श्रृंगार
उषा विहंसी कर नयन खोल
हो गए रक्तवर्णी कपोल
बाला का कोमल सरस गात
कितना मधुरिम चंचल प्रभात।
दे रहा दूत सबको संदेश
हो रहा दिवाकर का प्रवेश
अरि करते गुंजित ह्रदय तार
करने को स्वागत है तैयार
हो क्षीण भगी फ़िर कुटिल रात
कितना मधुरिम चंचल प्रभात।
कर रहे नृत्य सारे प्रसून
छाई मधुपों की लय गुनगुन
पक्षीगण गाते मधुर गान
करवाते सबको सुधा पान
ये मलय पवन का मृदुल हाथ
कितना मधुरिम चंचल प्रभात।
किरणों ने कोमल पत्रों के
आलिंगन कर आंसू पोंछे
भर दिए पुष्प में नवल रंग
पुलकित धरणी का अंग अंग
सब वृक्ष झूमते साथ साथ
कितना मधुरिम चंचल प्रभात।
कलुषित रजनी तम से भर तन
बोझिल करुणा से उसका मन
बस फूट पड़ी कलकल छलछल
यौवन और ऊपर से उच्श्रंखल
बह चली निर्झरी सद्यस्नात
कितना मधुरिम चंचल प्रभात।
- राकेश
विलक्षण शब्दावली से सुसज्जित ये रचना अद्वितीय है...जितनी प्रशंशा की जाये कम है...शब्द चयन बेजोड़ है...
ReplyDeleteनीरज