अंजाम-ए-मोहब्बत

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ख़ूब मजमा लगा इश्क़ की हार पर 
सारी दुनिया हंसी मेरे एतबार पर
वो भी अपने ही थे जो गए छोड़ कर 
क्या बड़ी बात है, अश्क थे बह गए

जान भी होती क़ीमत तो मंज़ूर थी
ज़िंदगी ना कभी ऐसे मजबूर थी
लग गई दांव पर ग़ैरत-ए-इश्क़ जब 
सी लिए ओंठ महफ़िल में चुप रह गए

थी मुहब्बत तो सांसे भी चलती रहीं
रख़्श-ए-उम्मीद में रातें ढलती रहीं
उफ़ न की दर्द दिल का दफ़न कर लिया
दाग-ए-दामन समझ कर दुआ सह गए 

खेल महंगा पड़ा फर्त-ए-जज़्बात में
दर्द बढ़ता गया हर मुलाक़ात में
रंज रखते ज़माने से क्या उम्र भर
कहने वाले हमें सर-फिरा कह गए

- राकेश

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