ख़्वाहिशों का खेल
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हम बड़ी बड़ी ख़्वाहिशें तो रखते हैं लेकिन हमारा डर कभी कभी उनसे भी बड़ा हो जाता है. हम नाकाम तभी होते हैं जब हमारा जूनून और हमारी कोशिशें हमारे डर से हार जाते हैं|
किनारों पे खड़े रहने वाले देखेंगे तमाशा और अपने अपने घर चले जायेंगे
मगर कुछ ढूंढते हैं बेसब्र, कि इस जहाँ से आगे भी तो कोई दूसरा जहाँ होगा
ज़ुनून ऐसा कि समंदर में बेख़ौफ़ उतरते हैं, लहरों से उलझने का जिगर रखते हैं
तूफ़ानों को भी इल्म है कि दास्ताने-सफ़र में किस की सरफ़रोशी का बयां होगा
- राकेश
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