इंसानियत का बोझ

Source: "Troubles with the Nigerian Child Painting" by Uchechukwu Nweke

वैसे मै dark poetry (काली कवितायेँ), खासकर सामयिक विषयों पर कम ही लिखता हूँ. आज अनायास ही शब्दों का बहाव न जाने क्यों इस शैली की तरफ चला गया. कुछ पंक्तियाँ प्रस्तुत हैं सामाजिक विकृति और मानवीय अधोपतन के बढ़ते बवंडर के ऊपर. 

ज़रूरत पड़ी तो, 
जज़्बातों को खेलने का सामान बना लिया
मौका मिला तो, 
लम्हों को हैवानियत का शमशान बना लिया 

ख़ुद की नज़रों में गिर गए और फिर गिरते ही रहे उम्र भर,
आंखे मूँद लीं,
तमाशों के बीच बेबसी में जीना आसान बना लिया 

आइने तोड़ दिए
शब्दों के जाल को अपनी पहचान बना लिया 
रिश्ते स्वांग बनते गए तो,
ख़ुद को रंगीन मुखौटों की दुकान बना लिया 

मंज़िले ढूंढने का शौक़ अब किसी को नही मेरी दुनिया मे, 
रास्ते ज़िन्दगी का सच बन गए तो
डेरों को और भी आलीशान बना लिया |

दुनिया ने कहा सब बिकाऊ है तो
ख़ुद बिक गए और पैसे को अपना ईमान बना लिया
माँ की कोख़ में तो मासूम ही थे
थोड़े समझदार क्या हुए पाप को मेहमान बना लिया 

सिकुड़ती सोंच के नासूर पर आख़िर कितना और मरहम लगाते,
इंसान बन नही पाए तो ख़ुद को हमने भगवान बना लिया 

- राकेश 

--------------------------------------------------------

जज़्बातों - Feelings
लम्हों - (weak) Moments
हैवानियत - Animal Instinct
श्मशान - Graveyard
तमाशों - Public Drama / Show
बेबसी - Helplessness
आइने - Mirrors
शब्दों के जाल - Web of words
पहचान - Identity
स्वांग - Acting / Pretence
मुखौटों - Masks
डेरों - Camp/Tent/temporary shelter
आलीशान - Grand
बिकाऊ - For Sale
कोख़ - Womb
मासूम - Innocent
नासूर - Incurable Wound / Cancer
मरहम - Ointment




Comments

Popular posts from this blog

वक़्त की करवटें

ॐ नमो गं गणपतए शत कोटि नमन गणपति बप्पा

होली 2023