संवाद, तर्क और दोस्ती

कुछ दिनों पहले मैंने फेसबुक पर आध्यात्म एवं विज्ञान के बीच की दूरी के मसले पर एक लेख डाला. कुछ ने सराहा तो कुछ ने वैचारिक असहमति भी जताई. असहमति अपनी जगह दुरुस्त है, आखिर तो हम सब ही बूँद भर ज्ञान से सागर की गहराई नाप रहे हैं, तो काहे का हल्ला गुल्ला. मगर फिर भी मेरा प्रयास रहता है कि संवाद और तर्क की प्रक्रिया में मेरे अनुभव और अंतःप्रज्ञा से कुछ नए दरवाजे खोलूं.

तो जाहिर है की दोनों पक्षों का सम्पूर्ण दृष्टिकोण आने में संवाद अक्सर थोड़ा लम्बा खिंच जाता है. मेरे एक शुभचिंतक मित्र ने निजी तौर पर सलाह दी कि भाई अगर हर कोई तुम्हारी बात समझ जाता तो दुनिया का कल्याण बहुत पहले हो जाता इसलिए ज्यादा तर्क वितर्क करके कोई फायदा नहीं है. हो सकता बात सही भी हो. किन्तु मेरा नज़रिया थोड़ा अलग है और उस नज़रिये के लिए ही ये दो पंक्तियाँ:

बदलाव की आंधी है, हवाओं में रफ़्तार है, 
पत्ते भी कई टूटेंगे और उड़ेगी धूल भी |  
आँखे मूँद के मासूम तो बन जाएँ मगर, 
आइना देखके हर बार खुद से होगी मायूसी बड़ी | 

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