भूली कविता फिर महक उठी

सुबह धूप की पहली किरणें और शाम की ढलती छाया
कवि के अंतर्मन में आ कर द्वार कल्पना का खटकाया

बड़े समय से नही सुनी है, 
किसी नई कविता की खनखन
कहाँ अपिरिचित खोया खोया, भटक रहा है कवि का मन 

कवि की रचना है इंद्रजाल, कविता की गति है महाचपल  
जाने कब कैसे उमड़ पड़े, कविछन्द तरंगों की हलचल

अपने परिचय का भार कभी, जब और नहीं सह पाता हूँ
तब निज पहचान भुला कर मै, कवि की पहचान बनाता हूँ

अब डूब रहा हूँ छन्दो में, थम जाऊं तो सो जाने दो 
भूली कविता 
फिर महक उठी, अब कविता में खो जाने दो

भूली कविता फिर महक उठी, अब कविता में खो जाने दो


- राकेश 
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इंद्रजाल = magic
कविछन्द = couplets

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